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शिव’ त्रिशूल नहीं, धनुष चलाते थे ?

सावन का पहला सोमवार… हर मंदिर में “ॐ नमः शिवाय” की गूंज है, भक्त जल चढ़ा रहे हैं, उपवास रख रहे हैं, और शिवलिंग की पूजा कर रहे हैं। पर क्या आपने कभी सोचा है कि जिस शिव को हम त्रिशूलधारी, जटाजूटधारी और शांत समाधिस्थ रूप में पूजते हैं, वो प्रारंभ में ऐसे नहीं थे? Lord shiv is not used trishul, its dhanush

4,500 साल पहले के प्राचीन ग्रंथों में शिव का एक अलग ही रूप मिलता है। ऋग्वेद, हिंदू धर्म का सबसे पुराना ग्रंथ, शिव का उल्लेख ‘रुद्र’ नाम से करता है। वह रुद्र क्रोधी थे, उनके पास धनुष था, और वह वनों के स्वामी माने जाते थे — एक जंगली देवता, जो भयभीत भी करते थे और रक्षा भी। तब उनका कोई स्थायी मंदिर या मूर्ति नहीं होती थी। लोग उन्हें प्रकृति के रूप में, वृक्षों और पत्थरों में पूजते थे।

कालांतर में यजुर्वेद ने रुद्र को “शिव” कहा — अर्थात “कल्याणकारी”। यहीं से उनके स्वरूप में बदलाव शुरू हुआ। त्रिशूल, डमरू और तीसरी आंख जैसे प्रतीकों ने धीरे-धीरे स्थान लिया। शिवलिंग पूजा की परंपरा भी यहीं से जन्मी, जो अब एक प्रमुख रूप में उभरी है। यह कोई मूर्ति नहीं, बल्कि ऊर्जा का प्रतीक है — अनादि और अनंत।Lord shiv is not used trishul, its dhanush

रामायण में शिव के स्वरूप को और विस्तार मिलता है। राम और रावण, दोनों ही शिवभक्त थे। रावण ने तो शिव को प्रसन्न करने के लिए अपना सिर तक चढ़ा दिया था। वहीं महाभारत में अर्जुन को पाशुपत अस्त्र देने वाले शिव तपस्वी और दयालु रूप में प्रकट होते हैं।

Pew रिसर्च के अनुसार आज भी 45% हिंदू शिव को अपना इष्ट मानते हैं — यानी सबसे अधिक। वे संहारक भी हैं, सृजनकर्ता भी; योगी भी हैं, गृहस्थ भी। शिव, समय के साथ बदलते नहीं, समय को ही बदल देते हैं।

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